युद्ध का अंतिम दिन

Sharad K. Srivastava
4 min readSep 11, 2021

रणभूमि के क्षितिज पर सूर्य अस्त हो रहा था। रक्त से सनी हुई धरती ढ़लते सूर्य की केसरी किरणों से चमक रही थी। कभी रणभेरियों और शंखनाद से गूँजते मैदान में अब शमशान सी शान्ति पसरी हुई थी। अठारह दिन तक चला भीषण युद्ध समाप्त हो चुका था। किसी विधवा के सूने कपाल सी कुरुक्षेत्र की इस रणभूमि की ओर भारी मन से मैं धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था।

दुर्योधन रणभूमि के एक ओर मरणोन्मुख पड़ा था। अश्वत्थामा, कृतवर्मा और आचार्य कृप दुर्योधन के अंतिम क्षणों के साक्षी बने पाषाण मूर्ति समान मूक बैठे थे। आसपास की झाड़ियों में छिपे भेड़िए, गिद्ध और अन्य भूखे जंगली जानवर भक्ष्य की आस में मँडरा रहे थे। बड़ा ही भयावह दृश्य था।

रणभूमि के दूसरी ओर पाण्डवों की छावनी में आक्रन्द मचा हुआ था। प्रतिशोध की भावना से अश्वत्थामा ने पाण्डव, पांचाल, धृष्टद्युम्न के वंशजों के साथ सभी मत्स्यवीरों की हत्या कर दी थी। युधिष्ठिर आक्रंद कर रहे थे और द्रौपदी अपनी संतानों की हत्या की खबर सुनकर मूर्छित पड़ी थीं। भीम द्रौपदी के समीप और अर्जुन, नकुल और सहदेव युधिष्ठिर के पास दिग्मूढ़ बैठे हुए थे।

यह भयावह युद्धांत देख कर मेरा मन उद्विग्न था। मेरा गला सूख रहा था और मेरी शक्तियां क्षीण हो रही थीं। मैं वहीं क्षत-विक्षत पड़े एक रथ के अवशेष पर बैठ गया। इस विनाशकारी युद्ध का अंत इतना दुःखद होगा, किसने सोचा था! तभी पीछे से शान्त सी बहती नदी समान एक मृदु आवाज उठी “तुम्हें प्यास लगी है? पानी पिओगे?” मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो एक ग्वाला पानी का पात्र लिए खड़ा था। उसके चेहरे पर मंद मंद मुस्कुराहट थी और कमल पुष्प जैसे उसके नेत्रों से करुणा छलक रही थी। उसने प्रश्न दोहराया और मैंने स्वीकृति में धीरे से अपनी मान झुका दी।

पानी पिलाते हुए उस ग्वाले ने मेरे निस्तेज से चेहरे को देखा और पूछा, “क्या सोच रहे हो?” और मेरे प्रश्न सहज ही फूट पड़े, “इस महाभयंकर युद्ध ने भारतवर्ष की समस्त प्रतिभा को नष्ट कर दिया। कर्ण जैसे महाबली योद्धा, द्रोण जैसे ज्ञानी और भीष्म जैसे प्रखर राजनीतिज्ञ इस युद्ध की बलि चढ़ गए। और भी कितने नामी योद्धाओं और महापुरूषों के प्राणों का भोग चढ़ गया। आखिर क्यों?”

ग्वाला बोला, “यही प्रखर राजनीतिज्ञ पितामह भीष्म द्रौपदी के चीर हरण के मौके पर मूक दर्शक बने बैठे थे। आचार्य द्रोण, वही जिन्होंने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के लिए कर्ण जैसे धनुर्धर से भेद किया! और कर्ण, दुर्योधन का मित्र, दुर्योधन के हर पाप को आँखें मूँद कर सहमति देता रहा। क्या कर्ण का कर्तव्य नहीं था दुर्योधन को सही मार्ग दिखाना? मूकदर्शक बने रहना, सच के लिए आवाज़ नहीं उठाना भी अपराध ही है।”

“पाण्डव तो युद्ध जीत चुके हैं। फिर भी वे इस महान विजय का उत्सव नहीं मना पा रहे हैं। विजयी होने के बावजूद भी वे दुःखी हैं, उनका समस्त वंश नष्ट कर दिया गया। विजयी होने पर भी पाण्डु पुत्र दुःखी क्यों?” ग्वाला फिर से मुस्कुराया और बोला: “तुम्हें क्या लगता है, जब धर्मराज अपनी पत्नी को द्युत में लगाते हैं, जब पार्थ और भीम युधिष्ठिर के इस कर्म को मूक समर्थन देते हैं, जब सती पांचाली बेवजह ही कर्ण का बारंबार अपमान करती हैं, तब जाने अनजाने में यह सभी इस युद्ध के निमित्त नहीं बन जाते? अन्याय का मूक-दर्शन भी अपराध ही है।”

मैं विस्फरित आंखों से ग्वाले को सुनता रहा। रात सुबह की ओर बढ़ रही थी, प्रश्न और भी थे।

“इस विनाश के लिए जवाबदेह कौन?”

ग्वाला बोला, “इनमें से कोई भी नहीं!”

“पर अभी तो तुम इन‌ सभी की गलतियां गिना रहे थे!”

“हाँ, इन सभी ने गलतियाँ कीं लेकिन यह युद्ध अवश्यंभावी था। यह विनाश निश्चित था। इन सभी योद्धाओं ने अपनी अपनी विवेक बुद्धि से पक्ष चुना!”

“तो इस युद्ध का विजेता कौन हुआ और विजित कौन?”

“कुरुक्षेत्र में प्राण त्यागने वाला हर योद्धा, हर सिपाही स्वर्ग को प्राप्त करेगा! ना पाण्डवों की जीत हुई और ना ही कौरवों की हार हुई, क्योंकि जीवन युद्ध में ना मनुष्य जीतता है और ना हारता है। इस युद्ध में नीति का जय हुआ और अनीति का पराभव, सत्य की विजय और असत्य की पराजय हुई। जीवन के हर युद्ध में मनुष्य मात्र एक सिपाही होता है। मनुष्य अपनी विवेक बुद्धि से सत्य या असत्य का पक्ष चुनने के लिए स्वतंत्र है। मनुष्य सिर्फ एक सिपाही बन कर युद्ध में हिस्सा लेता है और हर युद्ध में अंततः जय या पराजय सेनापति का होता है, सिपाही का नहीं।”

“और यदि मनुष्य इस युद्ध से भागना चाहे तो?”

“नहीं भाग सकता क्योंकि युद्ध अवश्यंभावी है, एक रणभूमि से पीछा छुड़ाने के प्रयास में दूसरी रणभूमि में प्रवेश करना होगा लेकिन युद्ध तो लड़ना ही होगा! यही नियति है!”

मेरी वाचा मौन हो गई, मेरी शंकाओं को समाधान प्राप्त हुआ। हम दोनों शांत बैठे रहे और हमारे पीछे से सूर्योदय की कोमल किरणों का आगमन हो रहा था। रणभूमि की कोंपलों पर तुषारापात शुरू हो चुका था। वातावरण में उर्जा का संचार हो रहा था। प्रभात के पंछी अपने उड़ान पर निकल पड़े थे।

मेरी आँखें खुलीं। मैं अपने बिछौने पर था। मेरी आँखों के सामने था बेडरूम का पंखा। सामने के कमरे में टेलीविज़न पर न्यूज एंकर दुनिया भर में कोरोना वाइरस से हुई मौतों के आँकड़े उत्साह-सहित और वीरतापूर्वक बता रहा था।

क्या वह स्वप्न था? हाँ, वह स्वप्न ही था। क्या यह स्वप्न है? काश, यह भी स्वप्न ही सिद्ध हो।

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Sharad K. Srivastava

Researcher, Technocrat, Entrepreneur // Thinker-Executor, Participant-Observer, Philosopher-Practitioner // Interested in: India, Politics, & Social Development